आज़ादी और बेहयाई में फर्क क्यों ज़रूरी है?
आज के समाज में “आज़ादी” और “बेहयाई” के बीच की सीमा रेखा धुंधली होती जा रही है। कई लोग हर अनुशासन और मर्यादा तोड़ने को आधुनिकता और स्वतंत्रता मान रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सचमुच प्रगति है, या हमारी आने वाली पीढ़ियों को अंधकार की ओर धकेलना?
संतों की वाणी – राजनीति नहीं, समाज की पुकार
बाबा प्रेमानंद जी महाराज और अनिरुद्धाचार्य जी जैसे संत-महात्मा जब चेतावनी देते हैं, तो वह किसी लाभ या राजनीति के लिए नहीं होती।
उनकी वाणी पिता की डाँट, गुरु की सीख और भगवान की कृपा जैसी होती है – कठोर ज़रूर, परंतु कल्याणकारी।
संस्कृति और सभ्यता की रक्षा क्यों ज़रूरी है?
- हमारी बेटियाँ और बहुएँ केवल बाज़ार की वस्तु नहीं हो सकतीं।
- परिवार केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि मंदिर है।
- औरत को देवी का दर्जा देना हमारी संस्कृति की नींव है।
- 👉 अगर मर्यादा और संस्कार टूट गए, तो सभ्यता भी अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाएगी।
आधुनिकता बनाम मर्यादा
आधुनिकता तभी सुंदर है जब उसमें लाज, शर्म और आत्म-सम्मान की खुशबू हो।
अगर बेहयाई को आज़ादी कहा जाने लगे, तो समाज की जड़ें खोखली हो जाएँगी।
संतों की चेतावनी क्यों कठोर लगती है?
संतों की वाणी अक्सर कठोर प्रतीत होती है, लेकिन यह कठोरता उस किसान की तरह है जो खरपतवार निकालने के लिए दरांती चलाता है।
👉 अगर आज नहीं रोका गया, तो कल फसल ही नष्ट हो जाएगी।
निष्कर्ष – सत्य से भागना नहीं, उसे अपनाना ज़रूरी
- संतों की चेतावनी समाज की आख़िरी पुकार है।
- 👉 आज़ादी तभी सुंदर है जब उसमें संस्कार, मर्यादा और आत्म-सम्मान हो।
- 👉 बेहयाई को प्रगति कहना सिर्फ़ पतन का दूसरा नाम है।
- आज़ादी बनाम बेहयाई
- संतों की चेतावनी
- भारतीय संस्कृति और मर्यादा
- बाबा प्रेमानंद जी महाराज
- अनिरुद्धाचार्य जी विचार
- समाज में आधुनिकता और पतन
- महिलाओं का सम्मान भारतीय संस्कृति
0 Comments